क्यों अपनों से ही अपने खातिर लड़ रही हूँ मैं 
क्यों हम दोनों के सफर मे तन्हा चल रही हूँ मैं  
ऐतबार तो मुझे अब भी उसके उन वादों पर 
पर क्यों लगता है कुछ कमजोर पड़ रही हूँ मैं

 
अंदाज उनका काफी अनोखा था, की पहली ही दफा मैं जान वॉर बैठी थी 
बातों का काफिला शुरू हो उस्से पहले ही, निगाहें सबकुछ बयान कर बैठी थी 
मंजिल पाने की तलब कुछ खास लाज़मी तो ना थी मुझे,
क्यूंकि उनके साथ बिताए लम्हों को ही मैं अपना इनाम मान बैठी थी


पर क्या इतना काफी है या किसी और की तलाश है 
अगर ये काफी है तो दिल क्यों यूं उदाश है ?
क्या उसके लौट आने की मन को अब भी कोई आश है 
या बेवजह ये मन कुछ सोच के निराश है 


benam riston i bhi apni uchh marzi hai
iston me jine me ya hudgarzi hai

lagti hain mazile milon dur 
par wo pas hon to ya farzi hain 

arzi, 


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