हौसला
वक्त ने जो दावपेच चले नज़र के सामने वो सत्य है
वो सत्य है, हलाकि
खोफ्नाक है, हलाकि दर्दनाक है पर सत्य है
इस सत्य को स्विकार कर, खुद मे फिर
विचार कर,
रौशनी की एक किरण को मन फिर निहार कर
चल पड़े जो बेड़ियों को तोड़ तुम,
है यंकी मुम्किन दिखेगी हर डगर
यंकी नहीं किसी को जो तो ना करे वो ना सही,
मुश्किलों की रात जो ये दर्द दे वो भी सही
बुलंद कर आवाज़ को तू एक पुकार फिर लगा,
उठ खड़ा हो शेर सा तू एक दहाड़ फिर लगा
मजबूर है खुदा फिर देने को तेरी मन्नतें,
तू मन्नतों को अपने जहन मे ख्वाब सा फिर से जगा
नितदिन सुबह जब सूर्य निकले बादलों को चीर कर,
बिना थके जो चाँद मुस्कुरा रहा है रत भर
पंछी जब बिना रुके पथ को बढ़ते जा रहे,
पुष्प काँटों का आलिंगन कर के भी मुस्कुरा रहे,
जब अडिग हैं सब अपने – अपने कर्तव्य के उस मार्ग
पर,
तो हौशला क्यों तेरा डगमगा रहा इस राह पर
वक्त के इस दौड़ में खुद को जो हासिल कर सके,
तोड़ के ईन बेडियों को तुम जो आगे बढ़ सके
नाम अंकित कर सकोगे फक्र की किताब पर,
पंख पसारे इस गगन मे तुम फतह जो कर सके
तो आज ही तू ठान ले, ये गाँठ मन में
बाँध ले,
अब न रुकना है तुझे जब तक तू मंजिल पा ना ले
अब ना थकना है तुझे जब तक ये वक्त आजमा ना ले
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